आओ उतार फेंके
यह रिश्तों की चादर,
बहुत छीज गई है यह,
एकाध जगह से फटी होती,
तो रफ़ू हो सकती थी,
अब बेमन से ही सही
इसे छोड़ना ही बेहतर है।
बहुत कमज़ोर है
यह रिश्तों की चादर,
यहाँ से सिलो,
तो वहाँ से फट जाती है,
पर चाहूँ भी,
तो बदल नहीं सकता इसे,
बाज़ार में मिलती जो नहीं है।
कई बार रफ़ू करा लिया है,
पर अब तो यह
वहाँ से भी फट गई है,
जहाँ रफ़ू कराई थी,
अभी ओढ़े रखना चाहता हूँ इसे,
पर दर्जी कहता है,
अब संभव नहीं है
इसे रफ़ू करना।
सब कहते हैं
ओढ़े रहो यह रिश्तों की चादर,
पर यह तो वहाँ से भी फट गई है,
जहाँ से रफ़ू हुई थी,
आप ही कहिए,
क्या अच्छा रहेगा,
रफ़ू पर रफ़ू करवाना ?
संभाल कर रखना
यह रिश्तों की चादर,
कहीं छेद न हो जाए इसमें,
अच्छा नहीं लगता
साफ़ साबुत चादर में
एक भी छेद हो जाना।
गहन और भावपूर्ण भावाभिव्यक्ति ।
जवाब देंहटाएंनमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा रविवार 16 अप्रैल 2023 को 'बहुत कमज़ोर है यह रिश्तों की चादर' (चर्चा अंक 4656) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
मार्मिक
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण हृदय स्पर्शी सृजन आदरणीय।
जवाब देंहटाएंसमय के परिप्रेक्ष्य में बहुत ज़रूरी कविता।
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