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बुधवार, 6 जुलाई 2022

६५६. कुर्सियाँ

 



ये पुरानी कुर्सियां 

तब तक स्वस्थ थीं,

जब तक बैठक में थीं,

पर सबको चुभती थीं. 


नया फ़र्नीचर आया,

तो इनके लिए 

न बैठक में जगह थी,

न किसी कमरे में,

स्टोर-रूम में भी नहीं. 


आँगन में रखी कुर्सियाँ 

अब धूप में तपती हैं,

बारिश में भीगती हैं,

तिल-तिल कर मरती हैं. 


सब परेशान हैं इनसे,

कबाड़ी भी कहता है,

क्या करूँ मैं इनका 

अब इनमें बचा ही क्या है?


16 टिप्‍पणियां:

  1. पुरानी चीज़ें इसी तरह व्यर्थ हो जाती हैं ..... और इंसान की भी ऐसे ही कीमत घाट जाती है और एक समय आता है कि बिना कीमत के ही रह जता है ...

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  2. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    सादर
    धन्यवाद।

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  3. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  4. जाड़े में काम आएंगी

    लेकिन बुजुर्ग किस काम के
    आन्दोलित करती रचना

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  5. इस बिम्ब के द्वारा बहुत कुछ कहा है कवि ने बढियां

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  6. मन को आंदोलित करती और बुजुर्गों की पीड़ा समझाती कमाल की रचना

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  7. इस पर कल टिप्पणी की थी ।शायद स्पैम में चली गयी ।बुज़ुर्गों की दशा का मार्मिक चित्रण ।

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  8. नया आया पुराना बाहर, यही हाल बहुत से घरों में भी है

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  9. शायद सर्दियों में किसी के हाथ तापने के काम आ जाएँ

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  10. मानवीय संवेदना को कुर्सियों के माध्यम से बखूबी दर्शाया है। बहुत ही सराहनीय ।

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  11. मन को छूते भाव।
    सराहनीय अभिव्यक्ति।
    सादर

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  12. जब तक समझ में आता है, कि कुर्सी किस काम की थी, कुर्सी गल जाती है। झकझोरने वाली रचना।

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  13. मर्म को छूती हुई रचना ....बहुत बढ़िया

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