ये पुरानी कुर्सियां
तब तक स्वस्थ थीं,
जब तक बैठक में थीं,
पर सबको चुभती थीं.
नया फ़र्नीचर आया,
तो इनके लिए
न बैठक में जगह थी,
न किसी कमरे में,
स्टोर-रूम में भी नहीं.
आँगन में रखी कुर्सियाँ
अब धूप में तपती हैं,
बारिश में भीगती हैं,
तिल-तिल कर मरती हैं.
सब परेशान हैं इनसे,
कबाड़ी भी कहता है,
क्या करूँ मैं इनका
अब इनमें बचा ही क्या है?
पुरानी चीज़ें इसी तरह व्यर्थ हो जाती हैं ..... और इंसान की भी ऐसे ही कीमत घाट जाती है और एक समय आता है कि बिना कीमत के ही रह जता है ...
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ८ जुलाई २०२२ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
सादर
धन्यवाद।
नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 08 जुलाई 2022 को 'आँगन में रखी कुर्सियाँ अब धूप में तपती हैं' (चर्चा अंक 4484) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।
जाड़े में काम आएंगी
जवाब देंहटाएंलेकिन बुजुर्ग किस काम के
आन्दोलित करती रचना
इस बिम्ब के द्वारा बहुत कुछ कहा है कवि ने बढियां
जवाब देंहटाएंमन को आंदोलित करती और बुजुर्गों की पीड़ा समझाती कमाल की रचना
जवाब देंहटाएंइस पर कल टिप्पणी की थी ।शायद स्पैम में चली गयी ।बुज़ुर्गों की दशा का मार्मिक चित्रण ।
जवाब देंहटाएंनया आया पुराना बाहर, यही हाल बहुत से घरों में भी है
जवाब देंहटाएंशायद सर्दियों में किसी के हाथ तापने के काम आ जाएँ
जवाब देंहटाएंमानवीय संवेदना को कुर्सियों के माध्यम से बखूबी दर्शाया है। बहुत ही सराहनीय ।
जवाब देंहटाएंमन को छूते भाव।
जवाब देंहटाएंसराहनीय अभिव्यक्ति।
सादर
हृदयस्पर्शी भाव !!
जवाब देंहटाएंजब तक समझ में आता है, कि कुर्सी किस काम की थी, कुर्सी गल जाती है। झकझोरने वाली रचना।
जवाब देंहटाएंहृदयस्पर्शी सृजन !
जवाब देंहटाएंमर्म को छूती हुई रचना ....बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी लगी यह कविता।
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