अपनी बेटी के लिए
एक गुड़िया ख़रीदी मैंने,
अच्छी लगती थी वह मुझे,
कभी मुंह नहीं खोला उसने,
महीनों कोने में रख दो,
तो भी चुप रहती थी वह.
कभी किसी से मिलने की
ज़िद नहीं की उसने,
न प्यार किया,न गुस्सा,
न रोई, न चिल्लाई,
कभी कुछ नहीं माँगा,
कभी विरोध नहीं किया,
हमेशा गुड़िया ही रही वह.
अब मैंने बेटी की शादी कर दी है,
विदा कर दिया है उसे,
पर गुड़िया को अपने साथ रखा है,
मुझे बेटी से ज़्यादा गुड़िया से प्यार है.
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार जून 09, 2019 को साझा की गई है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबेटियाँ गुड़िया -सी अच्छी लगती हैं, मगर गूँगी न हो.
जवाब देंहटाएंमैं यही मानती हूँ.
इस कविता मेंं तंज और दुख दोनों को अपने मन की स्थिति अनुसार पढ़ा/समझा जा सकता है.
बहुत सुंदर ,प्यारी रचना ...
जवाब देंहटाएंब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, सामाजिक असुरक्षा के साये में कल्याणकारी योजनाओं का लाभ क्या“ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (09-06-2019) को "धरती का पारा" (चर्चा अंक- 3361) (चर्चा अंक-3305) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
समय का खेल
जवाब देंहटाएंसांकेतिक तंज है रचना में पर बेटियां गूंगी गुडिया नही इस कायनात का सबसे आवश्यक अंग है।
जवाब देंहटाएंबेहद सराहनीय सृजन..वाह👌
जवाब देंहटाएंकाश वो गुड़िया विद्रोह कर पाती और फिर भी समाज को प्यारी लगती
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर सृजन !!
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति ... गुडिया के माध्यम से कितना कुछ कहा है आपने ...
जवाब देंहटाएंअति सुंदर लेख
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