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शुक्रवार, 19 अप्रैल 2019

३५५. इंजन


जब तक मैं डिब्बे में था,
मुझे लगता था,
मेरा डिब्बा ही ट्रेन है,
बस यही चल रहा है 
और ख़ुद-ब-ख़ुद चल रहा है.

जब नीचे उतरा,
तो पता चला 
कि गाड़ी में कई डिब्बे थे,
मेरा तो बस उनमें से एक था,
सारे डिब्बे चल रहे थे,
पर ख़ुद-ब-ख़ुद नहीं,
एक इंजन था आगे-आगे,
जो सबको चला रहा था.

7 टिप्‍पणियां:

  1. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (21-04-2019)"सज गई अमराईंयां" (चर्चा अंक-3312) को पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    - अनीता सैनी

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  2. जीवन की सच्चाई को बहुत ही खूबसूरती से व्यक्त किया हैं आपने, ओंकार जी।

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  3. बात एकदम सही है। कोई तो इंजन है जो सबको चला रहा है। कभी ये प्रेरणा बनकर आता है तो कभी अदृश्य शक्ति बनकर।

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  4. गहन अर्थ संजोये बहुत सुन्दर रचना...

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  5. सफर में भी सफर करता है आदमी
    बहुत कुछ देखता सोचता है आदमी ,
    कभी पेड़ दौड़ते है ,कभी सड़क भागती है
    कभी जिंदगी की कहानी लिखता है आदमी ,
    इंजन के पीछे डिब्बे ,डिब्बे में है आदमी
    जिंदगी के बीच रहकर जिंदगी की जरूरतों को
    समझता ,देखता ,सीखता ,जानता है आदमी ।
    चन्द पटरिया और हजारों मील का सफर
    इंजन के सहारे डिब्बे में तय करता है आदमी ।
    मेरी इस रचना के साथ आपको बधाई ,बहुत ही बढ़िया
    लिखा है आपने ।

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