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शनिवार, 30 जून 2012

३८.पत्ते हवाओं से

हवाओं, मत उमेठो हमारे कान,
दुखते तो नहीं, पर देखो,
ये निगोड़े फूल मुस्कराते हैं,
कल की जन्मी कलियाँ 
मन-ही-मन खिलखिलाती हैं.


हवाओं, कभी तुम यहाँ, कभी वहाँ,
ठहरना तो सीखा ही नहीं तुमने,
तुम्हीं कहो, कैसे बदला लें,
कैसे रोकें तुम्हें खींचकर?
ये डालियाँ, ये टहनियाँ 
हमारी होकर भी 
साथ नहीं देती हमारा,
न जाने कब से जकड़ रखा है,
तय कर रखी है हमारी उड़ान की सीमा.


बुरा न मानो, हवाओं,
ठिठोली तो समझो,
मत रोकना हमारे कान उमेठना,
मत छीनना हमसे ये खुशी,
कोई तो हो, जो हमसे ये आज़ादी ले.

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