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रविवार, 10 जून 2012

३६.शर्म

देखो, कभी तुम थक जाओ 
तो सुस्ता लेना,
थकने में कोई शर्म नहीं है,
थकान को कभी मत छिपाना,
कुछ भी छिपाना गलत है.


कभी नींद आए तो सो जाना,
ज़रुरी नहीं कि रात को ही सोया जाए,
गलत नहीं है दिन में सोना,
सोने के लिए नींद ज़रुरी है,
अँधेरा नहीं. 


कभी दिल करे तो सोए रहना,
उठना ज़रुरी नहीं है,
नहीं उठने में कोई शर्म नहीं है,
हर कोई एक बार तो ऐसे सोता ही है 
कि फिर कभी न उठे.

9 टिप्‍पणियां:

  1. हर कोई एक बार तो ऐसे सोता ही है ..... बहुत खूब ... गहन अभिव्यक्ति

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  2. काश के सो पाते इस तरह......
    और जब जी चाहे उठ पाते....
    :-)

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  3. कभी दिल करे तो सोए रहना,
    उठना ज़रुरी नहीं है,
    नहीं उठने में कोई शर्म नहीं है,
    हर कोई एक बार तो ऐसे सोता ही है
    कि फिर कभी न उठे.
    सुंदर रचना,,,,, ,

    MY RECENT POST,,,,काव्यान्जलि ...: ब्याह रचाने के लिये,,,,,

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  4. कुछ अलग से .... विरक्त से , निर्वाण से भाव

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  5. बहुत खूब! बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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  6. किसी कों ऐसा न सोना पड़े की वो उठ भी न सके ..

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  7. जैसे जीवन मृत्यु ठीक उसी तरह सेवा और सेवानिवृत्त है

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