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शनिवार, 21 जून 2025

811.बेबस दुनिया

 


नई-नई मिसाइलों के सामने 

बेबस लगती हैं पुरानी बंदूकें,

लड़ाकू विमानों के आगे 

बौने लगते हैं पैदल सैनिक। 


सीमा नहीं रही तबाही की,

अब किसे चाहिए परमाणु बम,

फ़र्क़ नहीं नागरिक और सामरिक में,

जैसे सैनिक ठिकाने, वैसे अस्पताल। 


सभी को चिंता है वतन की, 

किसी को परवाह नहीं मानवता की, 

हुक्मरानों की ज़िद के आगे 

कोई मोल नहीं ज़िंदगी का। 


जहां देखो, वहीं दिखाई पड़ती हैं

युद्ध की भीषण लपटें, 

कोई नहीं जो बुझा सके इन्हें,

बेबस नज़र आती है दुनिया। 

शनिवार, 14 जून 2025

810. पिता क्यों नहीं जाते अस्पताल?

 





बीमारियों से घिरे पिता

नहीं जाना चाहते अस्पताल,

खांसते रहते हैं दिन भर

सहते रहते हैं दर्द।


ज़ोर दो, तो कहते हैं

अस्पताल में होंगे बेकार के टेस्ट,

चुभाए जाएंगे इंजेक्शन,

खानी होंगी ढेर सी दवाइयां,

सहने होंगे साइड इफ़ेक्ट्स।


पिता कहते हैं,

घरेलू इलाज सबसे अच्छा है,

वे बनाते रहते हैं काढ़े,

पीते रहते हैं तरह-तरह की चाय।


मैं जानता हूँ,

पिता क्यों नहीं जाते अस्पताल,

उन्होंने बचा रखे हैं पैसे

हमारी बीमारियों के लिए।



809. रक्तदान

 



वह रक्त, जो तुम्हारी रगों में दौड़ रहा है, 

सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है, 

उसमें ज़मीन का पानी है, 

किसान का उपजाया अनाज है,

न जाने किस-किस की कोशिशों ने 

कितनी-कितनी तकलीफ़ें उठाकर 

निर्माण किया है उस रक्त का । 


तुम्हारा रक्त सिर्फ़ तुम्हारा नहीं है, 

दूसरों का भी है, 

इसलिए रक्तदान करो, 

समाज का क़र्ज़ अदा करो। 


शुक्रवार, 6 जून 2025

808.चश्मा

 




मैं बड़ा हुआ,

तो मेरे पाँवों में आने लगे 

पिता के जूते,

मेरी आँखों पर चढ़ गया 

पावरवाला चश्मा,

पर पिता का चश्मा 

मुझे फ़िट नहीं बैठता था 

दोनों के नंबर जो अलग थे। 


कहने को तो हो गया

मैं पिता के बराबर,

पर कभी नहीं देख पाया 

चीज़ों को उस तरह,

जैसे पिता देखते थे।