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मंगलवार, 17 सितंबर 2024

६८४.नदी से

 


नदी,

क्यों उतर आई तुम पहाड़ से,

क्या मिला तुम्हें नीचे आकर?

वहां तो तुम अल्हड़ बहती थी,

यहाँ चलने को तरसती हो. 


सच है कि कभी-कभार 

तुम दिखा देती हो रौद्र रूप,

घुस जाती हो घरों में,

पर ये लोग फिर आएंगे,

अपने टूटे घर संवारेंगे,

कछारों में नए घर बनाएंगे.


ये तुम्हारा स्वागत कचरे से करेंगे,

तुमसे तुम्हारी गहराई छीन लेंगे,

तुम कृशकाय, हांफती-घिसटती 

किसी तरह आगे बढ़ोगी,

पर सागर बहुत दूर है,

पता नहीं, तुम वहां पहुंचोगी या नहीं. 


नदी,

पहाड़ों पर कितनी जीवंत थी तुम,

बेहतर की उम्मीद में तुमने 

अच्छे को छोड़ दिया,

कम-से-कम इतना तो सोचा होता 

कि चाहकर भी संभव नहीं होता

कभी-कभी वापस लौट जाना. 

 


8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" पर गुरुवार 19 सितंबर 2024 को लिंक की जाएगी ....

    http://halchalwith5links.blogspot.in
    पर आप सादर आमंत्रित हैं, ज़रूर आइएगा... धन्यवाद!

    !

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  2. नदी कहती है, जो बहेगी नहीं वह नदी रहेगी ही नहीं

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  3. नदी बेहतर की आस में नहीं निकली घर से। चरैवेति चरैवेति - इसलिए निकली भी, बही भी, विलीन भी हुई।

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  4. नदी का दर्द ... उसकी बात ... कमाल है ...

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