कोरोना से संबंधित ५१ कविताओं का मेरा संकलन 'मौन की आवाज़' हाल ही में प्रकाशित हुआ है। यह अमेज़न पर उपलब्ध है। क़ीमत 49 रुपए है। इसी संकलन की एक कविता, 'ये लौटकर नहीं आएँगे':
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ये जो मामूली-से बीमार लगते हैं,
मैं जानता हूँ, लौटकर नहीं आएँगे।
डबडबाई आँखों से सब को देख लें,
दूर से ही सही, अंतिम विदा ले लें,
मैं जानता हूँ, ये लौटकर नहीं आएँगे।
कुछ दबा हो मन में, तो कह दें,
कोई आख़िरी इच्छा हो, तो पूरी कर लें,
इस घर, इस आँगन को निहार लें,
मैं जानता हूँ, ये लौटकर नहीं आएँगे।
सायरन बजाती एम्बुलेंस इन्हें ले जाएगी,
आवाज़ सुनकर लोग चौंकेंगे नहीं,
बस अपनी खिड़कियों से झांकेंगे,
मौत के डर से सिहर जाएंगे,
वे जानते हैं, ये लौटकर नहीं आएँगे।
ये जो मामूली-से बीमार लगते हैं,
लौटा दिए जाएँगे अस्पतालों से,
लावारिस सामान की तरह ठोकरें खाएंगे,
ऑक्सीजन की कमी से मारे जाएंगे,
सब जानते हैं, ये लौटकर नहीं आएँगे।
कैसी अजीब-सी लाचारी - अब न लौटे क!भी!
जवाब देंहटाएंकोरोना काल की याद दिलाती मार्मिक रचना, वाक़ई भयावह था वह समय
जवाब देंहटाएंबहुत से लोग नहीं लौटे.., बहुत मार्मिक सृजन ।
जवाब देंहटाएंओह ! अस समय को याद करने से भी डर लगता है अब।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण सृजन
जवाब देंहटाएंकड़वे सच को लिखा है ... डर भी है जो कुछ पल हप के गुज़र जाता है ...
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