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शनिवार, 12 अगस्त 2017

२७२. जीवन

बूँद-दर-बूँद रिस रहा जीवन,
ऐसे कि ख़ुद को ख़बर नहीं,
वैसे तो बहुत कुछ बचा है रिसने को,
कौन जाने, ख़ाली हो जाय अभी-अभी.

अभी देखा तो ख़ुशी से पागल था वो,
अभी आँखों में है नमी उसकी,
पल-भर में सब बदल गया ऐसे,
एक पल में छिपे हों जैसे बरस कई.

अभी तो जीवन से भरा था वो,
नज़र फिरी कि सब कुछ ख़त्म हुआ,
जादू कहें इसे या नाटक कहें कोई,
जो सच लगता है, सच है ही नहीं.

5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (14-08-2017) को "छेड़छाड़ से छेड़छाड़" (चर्चा अंक 2696) (चर्चा अंक 2695) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. प्रभावशाली रचना आदरनीय ओंकार जी। बधाई।

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  3. शायद इसी को जिंदगी कहते हैं ... समय कहते हैं ... माया भी कहते हैं ... पल में माशा पल में तोला ...

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