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शुक्रवार, 6 जनवरी 2017

२४२. गाँव का स्टेशन




मैं गाँव का स्टेशन,
अकेला, अनदेखी का मारा,
पटरियां गुज़रती हैं मेरे सामने से,
गाड़ियाँ सरपट दौड़ जाती हैं,
मैं बस देखता रह जाता हूँ.

दिनभर में एकाध पैसेंजर 
हालचाल पूछ लेती है रूककर,
फिर निकल जाती है आगे,
मेरा प्लेटफ़ॉर्म सूना रह जाता है.

ओ राजधानी, रोज़ नहीं,
तो कभी-कभी ही रुक जाया करो,
दुआ-सलाम कर लिया करो,
यात्री चढ़ाने-उतारने के लिए नहीं,
तो क्रॉसिंग के लिए ही सही,
तकनीकी ख़राबी के बहाने ही सही,
पांच साल में एक बार ही सही,
जैसे चुनाव के दिनों में कभी-कभी 
राजधानीवाले गाँव चले आते हैं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (08-01-2017) को "पढ़ना-लिखना मजबूरी है" (चर्चा अंक-2577) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    नववर्ष 2017 की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. जिसको नहीं रुकना वो कहाँ रुकता है ... शक्ति जरूरी है रोकने के लिए ...

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  3. अपनी बराबरी का नहीं मिलता न इसलिए सरपट भाग निकलती हैं
    क्या करे? लेबल जो देखा जाता है
    बहुत सुन्दर रचना
    नववर्ष की हार्दिक शुभकामनाएं

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  4. गाँव का स्टेशन भी आम आदमी की तरह उपेक्षित ही रहता है ! यहाँ भी वरीयता 'खास' इंसानों की तरह 'खास' एक्सप्रेस ट्रेन को ही दी जाती है !

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