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शुक्रवार, 12 दिसंबर 2014

१४८. छुपम-छुपाई

तुम्हें याद हैं न 
वे बचपन के दिन, 
जब हम साथ-साथ खेला करते थे,
अजीब-अजीब से,
तरह-तरह के खेल-
खासकर छुपम-छुपाई. 

मैं कहीं छिप जाता था 
और तुम आसानी से 
मुझे खोज निकालती थी.

मेरे छिपने की जगह 
कितनी भी मुश्किल क्यों न हो,
तुम्हें पता चल ही जाता था,
न जाने कैसे,
मुझे आज तक पता नहीं चला. 

न कपड़ों की सरसराहट,
न कोई बू, न खुश्बू ,
पर तुम हर बार मुझ तक  
पहुँच ही जाती थी.

सुनो, मुझे तब से तुम पर 
बहुत भरोसा है. 
अगर कभी ऐसा हो जाय 
कि मैं कहीं खो जाऊं 
और खुद को ढूंढ न सकूँ 
तो तुम आओगी न?

मैं जानता हूँ 
कि तुम मुझे ज़रूर खोज लोगी 
और कहोगी,'लो, हमेशा की तरह 
मैंने तुम्हें खोज लिया,
अब सम्भालो खुद को
और कभी ऐसी जगह न छिपना 
कि मुझे भागकर आना पड़े,
तुम्हें ढूंढना पड़े,
ताकि तुम फिर खुद से मिल सको'. 









6 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (14-12-2014) को "धैर्य रख मधुमास भी तो आस पास है" (चर्चा-1827) पर भी होगी।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बचपन की यादें जो कभी छूट नहीं पाती. सुन्दर रचना.

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  3. बचपन के दिन भुला ना देना—
    आज हंसे कल---?

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  4. बहुत खूब .. बचपन की यादों से जुदा प्रेम का बिम्ब संजोया है ... लाजवाब रचना ...

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