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रविवार, 16 जून 2013

८५. झाड़ू और गृहिणी

बहुत सफाई-पसंद है गृहिणी,
रोज बुहारती है कूड़ा,
रोज लगाती है पोंछा,
छोड़ती नहीं घर का कोई कोना 
जहाँ छिप सके ज़रा-सी भी गन्दगी.

चम-चम करता है गृहिणी का घर,
न कोई दाग, न कोई धब्बा,
पर जो उसके जीवन में बिखरा है,
वह कूड़ा कम ही नहीं होता,
बढ़ता ही चला जाता है.

ढूंढ नहीं पाई गृहिणी कोई झाड़ू,
जो हटा दे इस कूड़े को,
या थोड़ा कम ही कर दे,
कम-से-कम बढ़ने न दे.

झाड़ू लगाती गृहिणी सोचती है,
क्यों न वह एक तिनका निकाले 
और उसकी आँखों में चुभो दे,
जिसने उसके जीवन में कूड़ा बिखेरा है,
पर गृहिणी रुक जाती है,
क्योंकि वह परमेश्वर है 
और परमेश्वर के बारे में 
ऐसा सोचना भी पाप है.

9 टिप्‍पणियां:

  1. अहा.....
    बेहद सटीक और लाजवाब रचना.....

    परमेश्वर से पंगा कैसे ले बेचारी स्त्री...
    सादर
    अनु

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  2. बस यही तो नहीं कर पाती नारी और पिसती रहती है जीवन भर ...
    हिम्मत लानी होगी नारी को ...

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  3. बहुत मर्मस्पर्शी लाज़वाब प्रस्तुति...

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  4. एक गृहणी के मन को दर्शाती ...बेहद सुंदर रचना

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  5. अति सुन्दर ! आँखें नम हो गईं...

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