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शुक्रवार, 23 सितंबर 2016

२२९. पिता

पिता, तुम क्यों गए अचानक,
भला ऐसे भी कोई जाता है?
न कोई इशारा,
न कोई चेतावनी,
जैसे उठे और चल दिए.
तुम थोड़ा बीमार ही पड़ते,
तो मैं थोड़ी बातें करता,
थोड़ी माफ़ी मांगता,
तुम्हें बताता 
कि मैंने कब-कब झूठ बोला था,
कब-कब विश्वास तोड़ा था तुम्हारा,
कि मैं वह नहीं था,
जो तुम सोचते थे कि मैं था.
विस्तार से बताता तुम्हें वह सब
जो बताना चाहता था,
समय नहीं होता जो तुम्हारे पास,
तो कम-से-कम इतना ही कह देता 
कि पिता, मैं तुमसे बहुत प्यार करता हूँ.

7 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत संवेदनशील रचना ... मन में रही कसक ऐसी ही होती है ...

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  2. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि- आपकी इस प्रविष्टि के लिंक की चर्चा कल रविवार (25-09-2016) के चर्चा मंच "शिकारी और शिकार" (चर्चा अंक-2476) पर भी होगी!
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ-
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. समय रहते कहाँ सभी समझ पाते हैं ..
    मर्मस्पर्शी रचना

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  4. सुन्दर। किसी का महत्व उसके न होने पर पता चलता है, जब तक वह होता है उसकी कद्र नहीं करते।

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  5. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, "भूली-बिसरी सी गलियाँ - 8 “ , मे आप के ब्लॉग को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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