दियों की रोशनी कुछ कम है इस बार, तेल तो उतना ही है, बाती भी वैसी ही है, हवाएं भी नहीं हैं उपद्रवी, फिर भी कम है रोशनी. कहीं ऐसा तो नहीं कि रोशनी उतनी ही है, पर आँखें कमज़ोर हो गई हैं या यह भी हो सकता है कि आँखें कमज़ोर नहीं हुईं, मन में ही कुछ फ़र्क आ गया है. इस बार की दिवाली में सब कुछ पहले जैसा है, कुछ भी नहीं बदला है, पर दियों की रोशनी कुछ कम है. मुझे लगता है कि इस बार की दिवाली में दृष्टि परिवर्तन की ज़रूरत है.
अरे निगोड़े चाँद, इतना भी मत तड़पाओ, अब निकल भी जाओ. कब से बैठी हूँ इस आस में कि तुम निकलोगे तो कुछ खाऊँगी, पर तुम हो कि जैसे नहीं निकलने की कसम खाए बैठे हो. रोज़ तो बड़ी जल्दी आ जाते हो, खिड़की से झाँकने लगते हो, आज जब तुम्हारी ज़रूरत है, तो नखरे दिखा रहे हो, तड़पा रहे हो. क्या तुम भी पुरुषों की तरह हो, हमारी वेदना से अनजान, क्या तुम भी उन जैसे हो, हमारी बेबसी पर हंसनेवाले. चलो, बहुत हुआ चाँद, अब निकल भी जाओ, तुम्हारा क्रूर मज़ाक कहीं तुम्हें महंगा न पड़ जाय. कहीं ऐसा न हो कि महिलाएं व्रत तोड़ने के लिए तुम्हारा इंतज़ार करना छोड़ दें, कहीं ऐसा न हो कि करवा चौथ से तुम निष्कासित कर दिए जाओ.
चलो, आज शाम चलते हैं, देखते हैं रावण का जलना, बुराई पर अच्छाई की विजय, देखते हैं कि किस तरह राख हो जाते हैं दस सिर, किस तरह मारा जाता है कुम्भकर्ण, किस तरह बरसती हैं चिंगारियां बेबस मेघनाद के बदन से. चलो, आज शाम चलते हैं दशहरे के मैदान में, जहाँ हज़ारों लोग जमा होंगे, बजाएँगे तालियाँ, देखेंगे तमाशा, फिर घर लौट आएँगे. यही होता है दशहरे में हर साल, हर साल जलते हैं कागज़ के पुतले, फूटते हैं पटाखे, कभी किसी दशहरे में यह ख़याल ही नहीं आता कि असली रावण,कुम्भकर्ण,मेघनाद हमारे अन्दर ही कहीं छुपे हैं, जो हर साल दशहरे में बच जाते हैं जलने से.