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शुक्रवार, 2 नवंबर 2018

३३१. आनेवाली दिवाली


आनेवाली है दिवाली,
इंतज़ार है दियों का,
हज़ारों-लाखों दिए जलेंगे
जैसे हर साल जलते हैं,
चकाचौंध रोशनी होगी
जैसे हर साल होती है,
पर अगले ही दिन 
बुझ जाएंगे चिराग़,
फैल जाएगा अँधेरा.

काश यह दिवाली थोड़ी अलग हो,
कुछ कम चिराग़ जलें,
पर देर तक जलें,
थोड़ी कम रोशनी हो,
पर दूर रखे अँधेरा 
कम-से-कम कुछ दिन. 

ऐसी भी क्या ख़ुशी,
जो रॉकेट की तरह उठे,
फिर आ गिरे ज़मीन पर,
ख़ुशी हो तो ऐसी,
जैसे आसमान में सितारे,
मद्धम -मद्धम ही सही,
पर रात भर चमकें.  

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (04-11-2018) को "परिभाषायें बदल देनी चाहियें" (चर्चा अंक-3145) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    करवाचौथ की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाहहह.. सरल,सहज और सुंदर संदेश देती सार्थक रचना ओंकार जी।

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