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रविवार, 11 नवंबर 2018

३३२. नाविक से


नाविक,
चलो,नाव निकालें,
निकल पड़ते हैं समुद्र में,
खेलेंगे लहरों से,
झेलेंगे तेज़ हवाएं,
थक जाएंगे,
तो लौट आएँगे किनारे पर,
लेट जाएंगे रेत पर,
मुर्दे की तरह चुपचाप,
महसूस करेंगे जीवन,
अनुभव करेंगे आनंद
थककर चूर होने का. 

नाविक, 
चिंता नहीं,
अगर लहरों में खो गए,
हवाओं में भटक गए,
कोई फ़िक्र नहीं,
अगर लौट न पाए,
वैसे भी किनारे पर 
हम ज़िंदा कहाँ हैं?

3 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की दिनांक 11/11/2018 की बुलेटिन, " लहू पुकारे ... बदला ... बदला ... बदला “ , में आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (13-11-2018) को "छठ माँ का उद्घोष" (चर्चा अंक-3154) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    जवाब देंहटाएं