दार्जीलिंग के चाय बागानों में फटे-पुराने कपड़े पहने भीषण ठण्ड में कांपता एक मज़दूर जानता है, निकट है उसका अंत. गंगाजल थामे हाथों से उखड़ती सांसों के बीच उसकी डूबती आँखें मांगती हैं दार्जीलिंग के बागानों की दो घूँट गर्म चाय.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-09-2018) को "तीस सितम्बर" (चर्चा अंक-3110) (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी। -- सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। -- चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है। जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। -- हार्दिक शुभकामनाओं के साथ। सादर...! डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंरंगसाज़
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (30-09-2018) को "तीस सितम्बर" (चर्चा अंक-3110) (चर्चा अंक-3103) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
नसीब में होनी नहीं है चाय उसके दार्जिलिंग की । सुन्दर।
जवाब देंहटाएंगहरा कटाक्ष है रचना ...
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
Wow. कभी कभी कोई कविता कितनी सशक्त हो सकती है।
जवाब देंहटाएंसशक्त अभिव्यक्ति ।
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