३२५. रास्ते
रास्ते,
कहीं कच्चे, कहीं पक्के,
कहीं समतल, कहीं गढ्ढों-भरे,
कहीं सीधे, कहीं घुमावदार,
अकसर पहुँच ही जाते हैं
किसी-न-किसी मंज़िल पर.
बस, इसी तरह चलते चलें,
गिरते-पड़ते, हाँफते-दौड़ते,
रोज़ थोड़ा-थोड़ा,
अनवरत,
पहुँच ही जाएंगे आख़िर,
कहीं-न-कहीं,
कभी-न-कभी.
वाह...
जवाब देंहटाएंबेहतरीन
सादर
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 15 सितम्बर 2018 को साझा की गई है......... http://halchalwith5links.blogspot.in/ पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति ओंकार जी
जवाब देंहटाएंबस, इसी तरह चलते चलें,
गिरते-पड़ते, हाँफते-दौड़ते,
रोज़ थोड़ा-थोड़ा,
अनवरत,
पहुँच ही जाएंगे आख़िर,
कहीं-न-कहीं,
कभी-न-कभी.
बहुत अच्छे👌
सुंदर प्रस्तुति .
जवाब देंहटाएंबढ़िया, सकारात्मक सोच ही मंजिल तक ले जाती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर...
जवाब देंहटाएंराश्ते तो पहुंचे हुए ही होते हैं .... चलने वाले पहुंचे तो जीवित हो जाते हैं ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर ....
बहुत सुन्दर रचना।
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