मैंने जड़ों से पूछा,
क्यों घुसी जा रही हो ज़मीन में,
कौन सा खज़ाना खोज रही हो,
किससे छिपती फिर रही हो ?
जड़ों ने कहा,
हमारे सहारे टिका है पेड़,
जुटाना है उसके लिए हमें
पोषक आहार,
हरे रखने हैं उसके पत्ते,
बनाना है उसे विशाल।
क्या फ़र्क़ पड़ता है,
जो गुमनाम हैं हम?
हमारे लिए इतना बहुत है
कि हमने थाम रखा है किसी को,
ज़मीन के अंदर ही सही,
किसी की ज़िन्दगी हैं हम.
क्यों घुसी जा रही हो ज़मीन में,
कौन सा खज़ाना खोज रही हो,
किससे छिपती फिर रही हो ?
जड़ों ने कहा,
हमारे सहारे टिका है पेड़,
जुटाना है उसके लिए हमें
पोषक आहार,
हरे रखने हैं उसके पत्ते,
बनाना है उसे विशाल।
क्या फ़र्क़ पड़ता है,
जो गुमनाम हैं हम?
हमारे लिए इतना बहुत है
कि हमने थाम रखा है किसी को,
ज़मीन के अंदर ही सही,
किसी की ज़िन्दगी हैं हम.
वाह
जवाब देंहटाएंगहन चिंतन प्रस्तुत करती रचना ।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (15-10-2018) को "कृपा करो अब मात" (चर्चा अंक-3125) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
राधा तिवारी
बहुत सुंदर भाव लिए रचना। निष्काम कार्य करते रहना कोई जड़ों से सीखे। बहुत-बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंगहरे अहसास ... कुछ करने की ललक अपना सोचे बिना ...
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना ...