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शुक्रवार, 26 जनवरी 2018

२९५. तुम्हारे ख़त


तुम्हारे प्रेमपत्र सहेज के रखे हैं मैंने,
सालों से उन्हीं को पढता हूँ बार-बार,
अपनी लिखावट में दिखाई पड़ती हो तुम,
लगता है जैसे तुमसे मुलाकात हो गई.

अब पीले पड़ गए हैं ये काग़ज़,
उजड़-सी गई है सियाही इनकी,
पर किसी भी तरह बचाना है इन्हें,
ज़िन्दा रखना है इन ख़तों को उम्रभर.

पत्र तो अब भी आते हैं तुम्हारे,
पर मेल से, क़रीने से छपे अक्षरों में,
जिनमें तुम्हारी वह झलक नहीं मिलती,
जो तुम्हारी बेतरतीब लिखावट में है.

10 टिप्‍पणियां:

  1. आदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २९ जनवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
    टीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार', सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।

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  2. बहुत सुंदर ! हाथ से लिखे खतों की बात मेल में कहाँ? जगजीत सिंह जी की एक गजल याद आ रही है -
    तेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे.....

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  3. रोशनाई से लिखे ख़त की खुशबू अब कहाँ... बहुत सुन्दर रचना.

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  4. बहुत बढ़िया। सही कहा जो बात हाथ से लिखे खतो में थी वो ई मेल आदी में कहा हैं।

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  5. नेट ने प्रेम ग़ायब कर दिया शब्दों से ...

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