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शनिवार, 20 जनवरी 2018

२९४. जीवन और मृत्यु

नई जगह,
नई डगर,
चारो ओर छाया है 
घनघोर अँधेरा,
कहीं कोई किरण नहीं,
न ही किरण की उम्मीद,
कहीं कोई आवाज़ नहीं,
परिंदे भी चुप हैं.

अब आगे जाऊं या पीछे,
दाएं जाऊं या बाएँ,
ख़तरा किधर है, पता नहीं,
मंजिल किस ओर है, क्या मालूम.

तो क्या मैं रुक जाऊं?
बैठ जाऊं?
इंतज़ार करूँ अनंत तक रौशनी का?
नहीं, यह संभव नहीं,
भले कुछ भी हो जाय,
भले मैं लड़खड़ा जाऊं,
गिर जाऊं, मर जाऊं,
मुझे चलना ही है,
चलना ही जीवन है
और रुकना मृत्यु. 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (22-01-2018) को "आरती उतार लो, आ गया बसन्त है" (चर्चा अंक-2856) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    बसन्तपंचमी की हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    राधा तिवारी

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