तुम्हारे प्रेमपत्र सहेज के रखे हैं मैंने,
सालों से उन्हीं को पढता हूँ बार-बार,
अपनी लिखावट में दिखाई पड़ती हो तुम,
लगता है जैसे तुमसे मुलाकात हो गई.
अब पीले पड़ गए हैं ये काग़ज़,
उजड़-सी गई है सियाही इनकी,
पर किसी भी तरह बचाना है इन्हें,
ज़िन्दा रखना है इन ख़तों को उम्रभर.
पत्र तो अब भी आते हैं तुम्हारे,
पर मेल से, क़रीने से छपे अक्षरों में,
जिनमें तुम्हारी वह झलक नहीं मिलती,
जो तुम्हारी बेतरतीब लिखावट में है.
वाह
जवाब देंहटाएंआदरणीय / आदरणीया आपके द्वारा 'सृजित' रचना ''लोकतंत्र'' संवाद मंच पर 'सोमवार' २९ जनवरी २०१८ को साप्ताहिक 'सोमवारीय' अंक में लिंक की गई है। आप सादर आमंत्रित हैं। धन्यवाद "एकलव्य" https://loktantrasanvad.blogspot.in/
जवाब देंहटाएंटीपें : अब "लोकतंत्र" संवाद मंच प्रत्येक 'सोमवार', सप्ताहभर की श्रेष्ठ रचनाओं के साथ आप सभी के समक्ष उपस्थित होगा। रचनाओं के लिंक्स सप्ताहभर मुख्य पृष्ठ पर वाचन हेतु उपलब्ध रहेंगे।
वाह
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर
बधाई
सादर
वाह्हृ...बहुत सुंदर...👌
जवाब देंहटाएंवाह!!बहुत खूब।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! हाथ से लिखे खतों की बात मेल में कहाँ? जगजीत सिंह जी की एक गजल याद आ रही है -
जवाब देंहटाएंतेरे खुशबू में बसे खत मैं जलाता कैसे.....
रोशनाई से लिखे ख़त की खुशबू अब कहाँ... बहुत सुन्दर रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया। सही कहा जो बात हाथ से लिखे खतो में थी वो ई मेल आदी में कहा हैं।
जवाब देंहटाएंनेट ने प्रेम ग़ायब कर दिया शब्दों से ...
जवाब देंहटाएंउम्दा लिखावट ऐसी लाइने बहुत कम पढने के लिए मिलती है धन्यवाद् Aadharseloan (आप सभी के लिए बेहतरीन आर्टिकल संग्रह जिसकी मदद से ले सकते है आप घर बैठे लोन) Aadharseloan
जवाब देंहटाएं