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शुक्रवार, 7 अगस्त 2015

१७८. झील में चाँद

आधी रात को जब 
गहरी नींद में सोई थी झील,
शरारत सूझी आम के पेड़ को,
उसने एक पका आम,
जो लटक रहा था 
झील के ऊपरवाली डाली से,
टप्प से टपका दिया. 

चौंक कर उठी झील,
डर के मारे चीखी,
गुस्से की तरंग उठी उसमें,
थोड़ा झपटी वह पेड़ की ओर,
पर छू नहीं पाई उसे,
कसमसा के रह गई.

दूर आकाश में चमक रहा था चाँद,
सब देख रहा था वह,
मुस्करा रहा था अपनी चालाकी पर,
रात वह भी तो उतर गया था 
झील में चुपके से,
इतना चुपके से 
कि झील को पता ही नहीं चला. 

10 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 10 अगस्त 2015 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद! "

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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  3. जीवंत होते चरित्र है इस सुंदर कविता में,

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  4. बेहद सुंदर रचना ,जीवंत होती हुई ।

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  5. चाँद की आंखमिचौली चलती रहती है ...

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