मैंने चाहा कि वह सितारा
जो धीरे-धीरे बुझ रहा था,
उसे नई ज़िन्दगी दे दूँ,
फिर से प्रज्वलित कर दूँ।
मैंने चाहा कि किसी तरह
आसमान तक पहुँचू ,
उसे कहूँ कि तुम अकेले नहीं,
मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ.
पर सितारे को यह मंज़ूर नहीं था,
उसे लगा कि मैं ज़मीन पर हूँ
और वह ऊपर आसमान में,
मेरा और उसका क्या मेल.
सितारे को मंज़ूर नहीं था
मुझसे मदद लेना,
उसे मंज़ूर नहीं था
मेरा हाथ थामना,
उसे बुझना मंज़ूर था.
सुंदर ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर । सितारे टूट कर जमी पर आ ही जाते है |
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज रविवार (26-07-2015) को
जवाब देंहटाएं"व्यापम और डीमेट घोटाले का डरावना सच" {चर्चा अंक-2048}
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
वाह क्या बात कही है। एक बेबस सदिच्छा!
जवाब देंहटाएंगुरूर ओने से आगे देखने कहाँ देता है ... पर ऐसे गरूर काम नहीं आते ...
जवाब देंहटाएंVery nice post ...
जवाब देंहटाएंWelcome to my blog on my new post.
सितारे टूट कर अपनी दुनियां में ही कहीं खो जाते है । बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक प्रस्तुति..
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएँ।
बहुत सुन्दर...ग़ुरूर एक न एक दिन टूटता जरूर है, फिर क्यों लोग इतने मगरूर हैं.
जवाब देंहटाएं