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शुक्रवार, 3 जुलाई 2015

१७५.भगीरथ से



भगीरथ, तुम जो गंगा यहाँ लाए थे,
अब वह पहले-सी नहीं रही,
बुरा हाल कर दिया है हमने उसका,
घरों,बाज़ारों और कारखानों की 
गंदगी भर दी है उसमें,
नाले जैसा बना दिया है उसको.

अब तुम्हारी गंगा हांफ रही है,
हमारी ज़्यादतियों से कांप रही है,
थकी-थकी सी, रुकी-रुकी सी 
लड़खड़ाकर सागर तक जा रही है.

भगीरथ,
तुमने जो उपहार हमें दिया था,
हम उसे संभाल नहीं सके,
हमने उसे मार-मार कर ज़िन्दा रखा,
हम उसके लायक ही नहीं थे.

तुमसे विनती है 
कि तुम अपनी गंगा वहीँ ले जाओ,
जहाँ से उसे लाए थे,
वहां उसे साफ़ रखना, खुश रखना.

अब फिर कभी उसे 
किसी ग्रह या उपग्रह पर ले जाओ, 
तो पूरी पड़ताल कर लेना,
कहीं ऐसा न हो 
कि वहां भी तुम्हारी गंगा के साथ 
वैसा ही सलूक किया जाय 
जैसा हमने पृथ्वी पर किया था. 

10 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर रचना...सरस-सलिला रही इस पावन नदी को अपने पूर्व रूप में पुन : आने के लिए भागीरथ की तलाश है।

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  2. शायद वहां के लोग इतने लोभी न हों जितने अपने देश के ...
    सार्थक रचना है ...

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  3. बहुत सुंदर शब्दों में आपने नदी की व्यथा को लिखा है ..

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  4. वाकई....गंगा को गंदा कर दि‍या है हमने

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  5. गंगा की व्यथा को बहुत ख़ूबसूरत शब्द दिए हैं...

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  6. नदियों के प्रति अतिचार नही रोका तो स्वतः ही विलुप्त हो जाएंगी ..साथ ही जीवन भी .

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