भगीरथ, तुम जो गंगा यहाँ लाए थे,
अब वह पहले-सी नहीं रही,
बुरा हाल कर दिया है हमने उसका,
घरों,बाज़ारों और कारखानों की
गंदगी भर दी है उसमें,
नाले जैसा बना दिया है उसको.
अब तुम्हारी गंगा हांफ रही है,
हमारी ज़्यादतियों से कांप रही है,
थकी-थकी सी, रुकी-रुकी सी
लड़खड़ाकर सागर तक जा रही है.
भगीरथ,
तुमने जो उपहार हमें दिया था,
हम उसे संभाल नहीं सके,
हमने उसे मार-मार कर ज़िन्दा रखा,
हम उसके लायक ही नहीं थे.
तुमसे विनती है
कि तुम अपनी गंगा वहीँ ले जाओ,
जहाँ से उसे लाए थे,
वहां उसे साफ़ रखना, खुश रखना.
अब फिर कभी उसे
किसी ग्रह या उपग्रह पर ले जाओ,
तो पूरी पड़ताल कर लेना,
कहीं ऐसा न हो
कि वहां भी तुम्हारी गंगा के साथ
वैसा ही सलूक किया जाय
जैसा हमने पृथ्वी पर किया था.
वाह !
जवाब देंहटाएंयथार्थ मूलक रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना...सरस-सलिला रही इस पावन नदी को अपने पूर्व रूप में पुन : आने के लिए भागीरथ की तलाश है।
जवाब देंहटाएंशायद वहां के लोग इतने लोभी न हों जितने अपने देश के ...
जवाब देंहटाएंसार्थक रचना है ...
बहुत सुंदर शब्दों में आपने नदी की व्यथा को लिखा है ..
जवाब देंहटाएंवाकई....गंगा को गंदा कर दिया है हमने
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविता
जवाब देंहटाएंगंगा की व्यथा को बहुत ख़ूबसूरत शब्द दिए हैं...
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंनदियों के प्रति अतिचार नही रोका तो स्वतः ही विलुप्त हो जाएंगी ..साथ ही जीवन भी .
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