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रविवार, 2 जून 2013

८३. बेड़ियाँ

बेटी, अब तुम्हें घर में ही रहना है,
कभी-कभार निकल जाना बाहर,
ले लेना ठंडी हवा में सांस,
देख लेना पेड़ों,फूलों,परिंदों को,
सूरज,चाँद,सितारों को,
सागर,नदियों,पहाड़ों को,
मिल लेना चुनिन्दा सहेलियों से,
फिर लौट आना इसी कमरे में.

बेटी, मैं भी चाहता हूँ 
कि तुम आसमान में उड़ो,
दकियानूसी बिल्कुल नहीं हूँ मैं,
पर बाहर न जाने कौन ताक में हो,
हैं भी इतने कि पहचानना मुश्किल है.

बेटी, यह लड़की होने का दंड तो है,
पर कसूरवार मैं नहीं हूँ,
मैंने तुम्हें बेड़ियाँ पहनाई हैं,
क्योंकि मुझे प्यार है तुमसे,
न मैं तुम्हें खो सकता हूँ,
न मैं देख सकता हूँ तुम्हें
अंतहीन वेदना में.

बेटी, शहर में बहुत खतरे हैं,
जंगल होता तो छोड़ देता तुम्हें,
वहाँ शायद तुम महफूज़ रहती,
जहाँ सिर्फ भेड़िए घूमते हैं.

7 टिप्‍पणियां:

  1. जंगली जानवरों से अधिक खतरा दो पायों से है लेकिन कैद भी तो खतरे के भय से दी जाने वाली सजा है। यह पिता का भय हो सकता है, समाधान नहीं।

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  2. बहुत बेहतरीन .सुंदर पोस्ट।

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  3. बहुत खूब ... जंगल शायद महफूज़ होता .. वहां केवल भेडिये रहते हैं इन्सान नहीं ...
    बहुत कुछ कह जाती है यह रचना ... लाजवाब ...

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  4. मैंने तुम्हें बेड़ियाँ पहनाई हैं,
    क्योंकि मुझे प्यार है तुमसे,
    न मैं तुम्हें खो सकता हूँ,
    न मैं देख सकता हूँ तुम्हें
    अंतहीन वेदना में.

    मार्मिक ... कड़वी सच्चाई को कहती ...

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  5. क्यों तुम चिंतित से लगते
    हो, बेटी जीत दिलाएगी !
    विदुषी पुत्री जिस घर जाए
    खुशिया उस घर आएँगी !
    कर्मठ बेटी के होने से , बड़े आत्म विश्वासी गीत !
    इसके पीछे चलते चलते,जग सीखेगा,जीना मीत !

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