क्या जला रहे हो इस बार
होलिका दहन में?
गोबर के उपले?
कोयला, लकड़ियाँ?
बस यही सब?
जला देना इस बार
थोड़ा-सा अहम्,
थोड़ा-सा गुस्सा,
थोड़ा-सा लालच,
थोड़ा-सा स्वार्थ.
और ध्यान रहे,
प्रह्लाद को बचाने में
इतना न खो जाना
कि जल जाय
तुम्हारा स्वाभिमान,
राख हो जाय
तुम्हारी संवेदना.
इस बार होलिका दहन में
कुछ और बचे न बचे,
बचा लेना किसी भी तरह
अपनी आत्मा,
अपनी इंसानियत.
होलिका दहन में?
गोबर के उपले?
कोयला, लकड़ियाँ?
बस यही सब?
जला देना इस बार
थोड़ा-सा अहम्,
थोड़ा-सा गुस्सा,
थोड़ा-सा लालच,
थोड़ा-सा स्वार्थ.
और ध्यान रहे,
प्रह्लाद को बचाने में
इतना न खो जाना
कि जल जाय
तुम्हारा स्वाभिमान,
राख हो जाय
तुम्हारी संवेदना.
इस बार होलिका दहन में
कुछ और बचे न बचे,
बचा लेना किसी भी तरह
अपनी आत्मा,
अपनी इंसानियत.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (01-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर.होली की शुभकामनाएं.
जवाब देंहटाएंबहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंबिलकुल जला ही देना चाहिए अपना अहम्, गरूर जो इंसान को इंसान से मिलने नहीं देता ...
वाह्ह...बहुत खूब..सुंदर संदेश देती सार्थक रचना।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-03-2017) को "जला देना इस बार..." (चर्चा अंक-2897) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
रंगों के पर्व होलीकोत्सव की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बढ़िया कविता ओमकार जी . काश हम ऐसा कर पाते .
जवाब देंहटाएंबहुत खूब....सार्थक सन्देश देती आपकी रचना....
जवाब देंहटाएंहोली पर्व की बहुत-बहुत बधाई...