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शुक्रवार, 8 सितंबर 2017

२७६. पिता

तुम्हारे जाने के बाद मैंने जाना 
कि कितना चाहता था मैं तुम्हें.
जब तुम ज़िन्दा थे,
पता ही नहीं चला,
चला होता तो कह ही देता,
बहुत ख़ुश हो जाते तुम,
मैं भी हो जाता 
अपराध-बोध से मुक्त.

ऐसा क्यों होता है 
कि एक ज़िन्दगी गुज़र जाती है
और हमें इतना भी पता नहीं चलता 
कि हम किसको कितना चाहते हैं.

13 टिप्‍पणियां:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, डॉ॰ वर्गीज़ कुरियन - 'फादर ऑफ़ द वाइट रेवोलुशन' “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  2. बहुत सुंदर मर्मस्पर्शी रचना ओंकार जी।

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  3. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-09-2017) को "चमन का सिंगार करना चाहिए" (चर्चा अंक 2723) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  4. एक उम्र गुजर जाने बाद अपनों की क़द्र समझ आती है
    मर्मस्पर्शी

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  5. दिल को छू लेने वाली रचना. सच है कभी कभीvहम जान ही नहीं पाते कि हमारे भीतर अपनों के लिये कितना प्यार भरा है .

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  6. जाने क्यों किसी को खोने के बाद ही पता चलता है उसके और अपने बीच के प्रेम की गहराई का ! पिता के प्रति आपके असीम प्रेम को जाहिर करती रचना ।

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  7. आदरणीय ओंकार जी स्मृतिशेष पिता जी को समर्पित ये रचना बहुत मर्मस्पर्शी लगी | सचमुच विडंबना ही है कि हम अपने प्रिय जनों को संवाद के आभाव में कभी ये बता नहीं पाते कि हम उन्हें कितना चाहते है | और खासकर माता - पिता के प्रति ये भाव अव्यक्त ही रह जाया करते हैं | आपने बहुत अच्छा लिखा | सादर हार्दिक शुभकामना ------ -

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  8. बहुत मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति...

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