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शनिवार, 6 मई 2017

२५९.बिकाऊ

वह जो बाज़ार में नहीं है,
यह मत समझना
कि बिकाऊ नहीं है.

ग़लतफ़हमी में है वह,
ग़लतफ़हमी में हैं सभी 
कि उसे ख़रीदना नामुमकिन है.

कभी कोई ख़रीदार आएगा,
उसकी ऐसी क़ीमत लगाएगा,
जैसी उसने सोची न होगी,
जो डाल देगी उसे दुविधा में,
तोड़ देगी उसका संकल्प.

अंततः उसे झुकना होगा,
उसे मानना ही होगा 
कि यहाँ सब बिकाऊ हैं,
जो बाज़ार में हैं, वे भी,
जो नहीं हैं, वे भी.

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-05-2017) को
    "आहत मन" (चर्चा अंक-2628)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 08 मई 2017 को लिंक की गई है............................... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा.... धन्यवाद!

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  3. बहुत सुन्दर रचना..... आभार
    मेरे ब्लॉग की नई रचना पर आपके विचारों का इन्तजार।

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  4. Please Vsit My Blog...

    http://rahulhindiblog.blogspot.in/

    Thank you

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  5. आदरणीय ,अच्छा कटाक्ष है ,सुन्दर ! रचना आभार।

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  6. कड़वा और अप्रिय पर गहरा सत्य ...

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  7. संकल्प को डिगा देती है सोच से ऊँची क़ीमत। अवसरवादिता का यह दौर संस्कारविहीनता और स्थापित सामाजिक मूल्यों को बड़ी ढिठाई से धता बता रहा है।
    शब्द "ख़रीददार " को ख़रीदार ज़्यादा पढ़ा जाता है। हिंदी व्याकरण का तर्क यहाँ लागू नहीं होता है।

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  8. बहुत ख़ूबसूरत प्रस्तुति...

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  9. सच है , मंगलकामनाएं आपकी कलम को

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