मुसाफ़िर,
न जाने क्यों मुझे लगा
कि मैं तुम्हारी मंज़िल हूँ.
इसमें तुम्हारा क़सूर नहीं,
मेरी ही ग़लती थी
कि मुझे ऐसा लगा,
पर जब लग ही गया,
तो मुसाफ़िर,
बस इतना कर देना
कि जब मेरी गली से गुज़रो,
तो मेरी ओर देख लेना.
अगर देख कर मुस्करा सको,
तो और भी अच्छा,
मुझे लगेगा
कि मेरी ग़लतफ़हमी से
तुम नाराज़ नहीं हो,
मुझे लगेगा
कि मैं तुम्हारी मंज़िल नहीं था,
पर मुझे मेरी मंज़िल मिल गई.
न जाने क्यों मुझे लगा
कि मैं तुम्हारी मंज़िल हूँ.
इसमें तुम्हारा क़सूर नहीं,
मेरी ही ग़लती थी
कि मुझे ऐसा लगा,
पर जब लग ही गया,
तो मुसाफ़िर,
बस इतना कर देना
कि जब मेरी गली से गुज़रो,
तो मेरी ओर देख लेना.
अगर देख कर मुस्करा सको,
तो और भी अच्छा,
मुझे लगेगा
कि मेरी ग़लतफ़हमी से
तुम नाराज़ नहीं हो,
मुझे लगेगा
कि मैं तुम्हारी मंज़िल नहीं था,
पर मुझे मेरी मंज़िल मिल गई.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (16-04-2017) को
जवाब देंहटाएं"खोखली जड़ों के पेड़ जिंदा नहीं रहते" (चर्चा अंक-2619)
पर भी होगी।
--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुंदर
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 17 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंहृदय को स्पर्श करती पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंमंजिल से मंजिल पाने की राह मिल जाएगी ... बहुत खूब ...
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