अर्जुन, तुम्हें याद है ?
द्रोणाचार्य ने मुझसे
गुरु-दक्षिणा में
अंगूठा माँगा था,
उस ज्ञान के लिए,
जो उन्होंने मुझे दिया नहीं,
मैंने उनसे लिया था.
दुर्भावना थी उनके मन में,
कोई विराट उद्देश्य नहीं था,
बस एक चाह थी
कि कोई निकल न जाय
तुमसे आगे....
इसके लिए चाहे जो करना पड़े-
अनीति,अधर्म,छल-कपट.
अर्जुन, नादान था मैं,
सच में उन्हें गुरु मान बैठा,
उनकी चालाकी से बेख़बर
झट से अपना अंगूठा दे दिया,
उस गुरु-दक्षिणा का वे क्या करते?
क्या भला होना था उससे किसी का?
अर्जुन, अंगूठा खोकर मैंने जाना
कि देना तभी चाहिए,
जब माँगनेवाले की नीयत ठीक हो.
द्रोणाचार्य ने मुझसे
गुरु-दक्षिणा में
अंगूठा माँगा था,
उस ज्ञान के लिए,
जो उन्होंने मुझे दिया नहीं,
मैंने उनसे लिया था.
दुर्भावना थी उनके मन में,
कोई विराट उद्देश्य नहीं था,
बस एक चाह थी
कि कोई निकल न जाय
तुमसे आगे....
इसके लिए चाहे जो करना पड़े-
अनीति,अधर्म,छल-कपट.
अर्जुन, नादान था मैं,
सच में उन्हें गुरु मान बैठा,
उनकी चालाकी से बेख़बर
झट से अपना अंगूठा दे दिया,
उस गुरु-दक्षिणा का वे क्या करते?
क्या भला होना था उससे किसी का?
अर्जुन, अंगूठा खोकर मैंने जाना
कि देना तभी चाहिए,
जब माँगनेवाले की नीयत ठीक हो.
वाह....
जवाब देंहटाएंएक कटु सत्य का वर्णन
सादर
बहुत ख़ूब ... इतिहास में कई प्रश्न शायद इसलिए ही छोड़े हैं की भविष्य में जवाब लिया जा सके ...
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 02 अप्रैल 2017 को लिंक की गई है.... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंतार्किक, सुंदर रचना आभार "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंएकलव्य ने वहीं किया जो सहीं था, लेकिन गुरू ने वो मांग जो सहीं नहीं कहीं जा सकती.
जवाब देंहटाएंबहुत तार्किक और संदर्भित सुन्दर कविता
जवाब देंहटाएंबहुत प्रभावपूर्ण रचना......
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपके विचारों का इन्तज़ार.....