वे ख़त जो तुमने कभी लिखे थे,
मैंने पढ़कर रद्दी में डाल दिए थे,
कितना नासमझ था मैं,
ताड़ नहीं पाया प्रगति की रफ़्तार,
समझ नहीं पाया कि धीरे-धीरे
बंद हो जाएंगे हथलिखे ख़त.
जुड़े रहेंगे लोग हर समय,
फ़ोन से, इन्टरनेट से,
देख सकेंगे एक दूसरे को,
कर सकेंगे चैटिंग.
अब तुम्हारे ख़त बंद हो गए हैं,
हम रोज़ बात करते हैं आपस में,
रोज़ देखते हैं एक दूसरे को,
पर सब कुछ यंत्रवत सा है,
अब कहाँ वह इंतज़ार का मज़ा,
अब कहाँ वह फ़ासले की तड़प?
वह तड़प, वह बेकरारी,
मैं कहाँ से खोजूं स्मृतियों में,
मुझे तो याद भी नहीं
कि तुम्हारे ख़त, जो पढ़कर
मैंने रद्दी में डाल दिए थे,
उनमें तुमने लिखा क्या था.
मैंने पढ़कर रद्दी में डाल दिए थे,
कितना नासमझ था मैं,
ताड़ नहीं पाया प्रगति की रफ़्तार,
समझ नहीं पाया कि धीरे-धीरे
बंद हो जाएंगे हथलिखे ख़त.
जुड़े रहेंगे लोग हर समय,
फ़ोन से, इन्टरनेट से,
देख सकेंगे एक दूसरे को,
कर सकेंगे चैटिंग.
अब तुम्हारे ख़त बंद हो गए हैं,
हम रोज़ बात करते हैं आपस में,
रोज़ देखते हैं एक दूसरे को,
पर सब कुछ यंत्रवत सा है,
अब कहाँ वह इंतज़ार का मज़ा,
अब कहाँ वह फ़ासले की तड़प?
वह तड़प, वह बेकरारी,
मैं कहाँ से खोजूं स्मृतियों में,
मुझे तो याद भी नहीं
कि तुम्हारे ख़त, जो पढ़कर
मैंने रद्दी में डाल दिए थे,
उनमें तुमने लिखा क्या था.
ओहो ! ऐसा नहीं करना था ....
जवाब देंहटाएंजय मां हाटेशवरी....
जवाब देंहटाएंआप की रचना का लिंक होगा....
दिनांक 05/06/2016 को...
चर्चा मंच पर...
आप भी चर्चा में सादर आमंत्रित हैं।
बहुत सुंदर.
जवाब देंहटाएंअब सबकुछ यंत्रवत् ही हो गया। फलस्वरूप सामाजिक संबंध भी यंत्रों की तरह ही हो गये है । रचना मुझे तो बहुत अच्छी लगी।
जवाब देंहटाएंमशीनी युग की त्रासदी यही है ... प्रगति तो होती है संवेदना मर जाती है ...
जवाब देंहटाएंबहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंप्रभावपूर्ण रचना...
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका स्वागत है।