बहुत उजाला है यहाँ,
दिए यहाँ बेबस लगते हैं,
पता ही नहीं चलता
कि वे जल रहे हैं.
यहाँ दियों का क्या काम,
चलो, समेटो यहाँ से दिए,
खोजते हैं वे झोपड़ियाँ,
वे गली-कूचे, वे कोने,
जहाँ घुप्प अँधेरा है,
जहाँ दियों की ज़रूरत है.
एक-एक दिया भी जलाएंगे वहां,
तो शुरुआत के लिए बहुत होगा.
दिए यहाँ बेबस लगते हैं,
पता ही नहीं चलता
कि वे जल रहे हैं.
यहाँ दियों का क्या काम,
चलो, समेटो यहाँ से दिए,
खोजते हैं वे झोपड़ियाँ,
वे गली-कूचे, वे कोने,
जहाँ घुप्प अँधेरा है,
जहाँ दियों की ज़रूरत है.
एक-एक दिया भी जलाएंगे वहां,
तो शुरुआत के लिए बहुत होगा.
आपकी लिखी रचना, "पांच लिंकों का आनन्द में" सोमवार 25 जनवरी 2016 को लिंक की जाएगी............... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (25-01-2016) को "मैं क्यों कवि बन बैठा" (चर्चा अंक-2232) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ख़ूब
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंबहुत भाव पूर्ण ...
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