द्रोण, एकलव्य से गुरु-दक्षिणा मांगते
क्या तुम्हें शर्म नहीं आई ?
और दक्षिणा भी क्या मांगी तुमने,
दाहिने हाथ का अंगूठा!
तुम्हारी मांग में ही छिपी थी
तुम्हारी दुर्भावना, तुम्हारी अमानवीयता.
किस हक़ से मांगी तुमने गुरु-दक्षिणा ?
एकलव्य के लिए तुमने किया ही क्या था?
द्रोण, तुमने जो पाप किया,
उसका फल आखिर तुम्हें मिल ही गया,
महाभारत के युद्ध में तुम्हें
अपने प्रिय शिष्य से लड़ना पड़ा,
उसी अर्जुन के हाथों तुम्हारा वध हुआ,
जिसे सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए
तुमने एक निरीह आदिवासी से
उसका अंगूठा छीना था.
क्या तुम्हें शर्म नहीं आई ?
और दक्षिणा भी क्या मांगी तुमने,
दाहिने हाथ का अंगूठा!
तुम्हारी मांग में ही छिपी थी
तुम्हारी दुर्भावना, तुम्हारी अमानवीयता.
किस हक़ से मांगी तुमने गुरु-दक्षिणा ?
एकलव्य के लिए तुमने किया ही क्या था?
द्रोण, तुमने जो पाप किया,
उसका फल आखिर तुम्हें मिल ही गया,
महाभारत के युद्ध में तुम्हें
अपने प्रिय शिष्य से लड़ना पड़ा,
उसी अर्जुन के हाथों तुम्हारा वध हुआ,
जिसे सर्वश्रेष्ठ बनाने के लिए
तुमने एक निरीह आदिवासी से
उसका अंगूठा छीना था.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (03-05-2015) को "कौन सा और किस का दिवस" (चर्चा अंक-1964) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
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सुंदर और सार्थक
जवाब देंहटाएंसमय की गति को कोई नहीं जानता ... अच्छे कर्म शायद इसीलिए करने चाहियें ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
जवाब देंहटाएंमेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...
बेहतरीन
जवाब देंहटाएंबहुत उत्कृष्ट अभिव्यक्ति...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
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