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शुक्रवार, 24 अप्रैल 2015

१६६. पतंग

जब मेरी डोर किसी के हाथ में थी,
मैं छटपटाती थी, मुक्ति के लिए.

मैं दूर बादलों में उडूं,
हवाओं के साथ दौडूँ,
सूरज को ज़रा क़रीब से देखूं -
इतना मेरे लिए काफ़ी नहीं था.

मैं सोचती थी,जो मुझे उड़ाता है,
मुझे वापस क्यों खींच लेता है,
मेरा उड़ना, मेरा झूमना,
किसी और की मर्ज़ी से क्यों होता है.

डोर से कटकर तो मैं 
पूरी तरह हवाओं के वश में थी,
उड़-उड़ कर जब अधमरी हो गई,
तो किसी पेड़ की टहनी में फँस गई,
जहाँ मैं धीरे-धीरे फट रही हूँ,
तिल-तिलकर गल रही हूँ.

अगर टहनी में न फंसती,
तो भी मुक्त कहाँ होती,
मुझे दौड़ा-दौड़ाकर 
कोई-न-कोई आख़िर लूट ही लेता.

अब मैं समझ गई हूँ 
कि मेरे लिए मुक्ति संभव नहीं,
बस अलग-अलग स्थितियों में 
मेरे शोषण के तरीक़े अलग-अलग हैं. 

8 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (26-04-2015) को "नासमझी के कारण ही किस्मत जाती फूट" (चर्चा अंक-1957) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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  2. सुन्दर व सार्थक रचना प्रस्तुतिकरण के लिए आभार..
    मेरे ब्लॉग की नई पोस्ट पर आपका इंतजार...

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  3. बहुत खूब .. पतंग के बिंब में पता नहीं कितने मन खोल दिए आपने ...
    लाजवाब भावपूर्ण रचना ...

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  4. पतंग के माध्यम से बहुत कुछ कह दिया..बहुत सुन्दर और भावपूर्ण रचना...

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  5. मुक्ति की इच्छा मानव की मूलभूत इच्छा है..मुक्ति सम्भव भी है पर इन्सान सुख-सुविधाओं के पीछे जाकर स्वयं ही बंधता है, दुःख से ज्यादा तो सुख ही बांधता है

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  6. ye sach hai, abhut sach hai.. par yyye shoshan nahi.. parvaaz ka agaaz hi hai, hawaaon ke supurd hona..

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