मत बांधो मेरी तारीफ़ के पुल,
मत पढ़ो मेरी शान में कसीदे,
मत कहो कि मैं कुछ अलग हूँ,
कि मेरा कोई सानी नहीं है.
मैं जानता हूँ कि ये बातें अकसर
किसी मक़सद से कही जाती हैं,
अधिकार और पात्रता के बिना
कुछ हासिल करने के लिए
लोग ऐसा कहा करते हैं .
तुम्हें तो पता ही है
कि तुम जो कह रहे हो, सही नहीं है,
फिर भी तुम कह रहे हो,
क्योंकि तुम्हें लगता है
कि तुम्हारे झूठ को
मैं आसानी से सच मान लूँगा.
पर मेरा यकीन मानो,
अपना सच मुझे मालूम है,
मैं आईना देखे बिना कभी
घर से बाहर नहीं निकलता.
मत पढ़ो मेरी शान में कसीदे,
मत कहो कि मैं कुछ अलग हूँ,
कि मेरा कोई सानी नहीं है.
मैं जानता हूँ कि ये बातें अकसर
किसी मक़सद से कही जाती हैं,
अधिकार और पात्रता के बिना
कुछ हासिल करने के लिए
लोग ऐसा कहा करते हैं .
तुम्हें तो पता ही है
कि तुम जो कह रहे हो, सही नहीं है,
फिर भी तुम कह रहे हो,
क्योंकि तुम्हें लगता है
कि तुम्हारे झूठ को
मैं आसानी से सच मान लूँगा.
पर मेरा यकीन मानो,
अपना सच मुझे मालूम है,
मैं आईना देखे बिना कभी
घर से बाहर नहीं निकलता.
बहुत सुन्दर.
जवाब देंहटाएंआईना सच ही बोलता है.
सुंदर रचना..ईमानदारी तो सिर्फ आईने के पास ही रह गई है।
जवाब देंहटाएंक्या बात है ... आइना देखे बगेर घर से नहीं निकलता ...
जवाब देंहटाएंअपने से ज्यादा कोई अपने आप को नहीं जानता ... लाजवाब रचना है ...
लोहड़ी की हार्दिक मंगलकामनाओं के आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी इस प्रविष्टि की चर्चा कल सोमवार (13-04-2015) को "विश्व युवा लेखक प्रोत्साहन दिवस" {चर्चा - 1946} पर भी होगी!
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
जैसे वे नहीं बदले, वैसे ये भी न बदलेंगे। ये कोन्फ़्लिक्ट ऐसे ही बना रहेगा। विवेक बना रहना चाहिए बस। सुंदर कविता
जवाब देंहटाएंहर इन्सान को अपने बारे में पता होता है कि वह कितने पानी में है! यह स्पष्ट कराती सुन्दर रचना ...
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