नाविक, बीच समंदर में
किनारे से दूर,
अपनी नाव में एकाकी,
क्या तुम्हें डर नहीं लगता ?
जब लहरों के बीच
तुम्हारी नाव डगमगाती है,
तुम गीत कैसे गा लेते हो ?
भीषण तूफ़ान की आशंका से
तुम्हारी घिग्गी क्यों नहीं बँधती ?
नाविक, मैं किनारे पर खड़ा हूँ,
लहरों से बहुत दूर,
समंदर में कभी उतरे बिना ही
डर से काँपता रहा हूँ,
पर अब सब बदलना चाहता हूँ,
तुम जैसा बनना चाहता हूँ.
नाविक, इस बार वापस आओ,
तो मुझे भी साथ ले जाना
और छोड़ देना वहां,
जहाँ से किनारा दिखाई नहीं देता.
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (07-12-2014) को "6 दिसंबर का महत्व..भूल जाना अच्छा है" (चर्चा-1820) पर भी होगी।
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सभी पाठकों को हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
अर्थपूर्ण सुंदर रचना।
जवाब देंहटाएंसुंदर और भावपूर्ण...
जवाब देंहटाएंजिंदगी भी तो ऐसा ही सागर है .. जिसका किनारा नज़र नहीं आता ... अंत नज़र नहीं आता पर डर लगता है ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर.
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