बूंदों, आओ, बरस जाओ,
दूर कर दो ताप धरती का,
प्यासों की प्यास बुझा दो.
हर गांव, हर शहर,
हर जाति, हर धर्म,
स्त्री-पुरुष, छोटे-बड़े -
सब पर बरस जाओ.
गरीब की कुटिया पर बरसो,
धनी के महल पर भी,
खेत-खलिहान पर बरसो,
सूखे रेगिस्तान पर भी,
भूखों-नंगों पर बरसो,
संपन्न और तृप्त पर भी.
मेरे पड़ोसी पर बरसो,
थोड़ा-सा मुझ पर भी.
बूंदों, आज ऐसे बरसो
कि कोई बाकी न रहे,
कोई न कह सके
कि उसके साथ
आज फिर भेदभाव हुआ.
ये हुई कुछ बात...सबके लिए मंगलकामना आजकल कौन करता है...सुन्दर पोस्ट...
जवाब देंहटाएंआपकी इस अभिव्यक्ति की चर्चा कल रविवार (29-06-2014) को ''अभिव्यक्ति आप की'' ''बातें मेरे मन की'' (चर्चा मंच 1659) पर भी होगी
जवाब देंहटाएं--
आप ज़रूर इस चर्चा पे नज़र डालें
सादर
शायद आपकी प्रार्थना सुन ले .......
जवाब देंहटाएंउम्मीदों की डोली !