पथिक, मेरा मन होता है
कि मेरी छांव में सुस्ताने के बाद
तुम जब मंजिल की ओर बढ़ो
तो मैं भी तुम्हारे साथ चलूँ.
मुझे नहीं मालूम
कि तुम्हारी मंजिल क्या है
और तुम्हें जाना किधर है,
मैं तो बस तुम्हारी यात्रा में
सहयात्री बनना चाहता हूँ
ताकि देख सकूं तुम्हारा संकल्प,
दृढ़ निश्चय से भरे तुम्हारे कदम,
तुम्हारा कभी हार न मानना,
बस लगातार चलते जाना,
पर पथिक, मैं मज़बूर हूँ,
मेरी जड़ों ने मुझे
ज़मीन से जकड़ रखा है.
मुझे तो अपनी जगह खड़े-खड़े
तुम जैसे पथिकों को छांव देनी है,
मेरी तो यात्रा भी यहीं है
और मंजिल भी यहीं.
बहुत सुंदर !
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर प्रस्तुति ...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST आम बस तुम आम हो
अपना अपना धर्म निभाना ही तो जीवन की सम्पूर्ता है ...
जवाब देंहटाएंलाजवाब रचना...बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया
पेड़ के दिल की बात बखूबी पढ़ ली आपने...
जवाब देंहटाएंमंज़िलें अपनी - अपनी … बहुत सुन्दर रचना
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