बहुत बह चुकी मैं हरे-भरे मैदानों में,
खेल चुकी छोटे-सपाट पत्थरों से,
देख चुकी हँसते-मुस्कराते चेहरे,
पिला चुकी तृप्त होंठों को पानी.
अब कोई भगीरथ आए,
मुझे रेगिस्तान में ले जाए,
बहने लगूं मैं तपती रेत पर,
बांटने लगूं थोड़ी ठंडक,थोड़ी हरियाली.
मैं निमित्त बनूँ
पथराई आँखों में कौन्धनेवाली चमक का,
मुर्दा होंठों पर आनेवाली मुस्कराहट का.
मैदानों में आराम से चलकर
समुद्र में मिल जाने
और जीवित रहने से तो अच्छा है
कि मैं रेगिस्तानी रेत में बहूँ
और वहीँ मर जाऊं.
बहुत सुंदर ।
जवाब देंहटाएंभावपूर्ण रचना....बहुत बहुत बधाई...
जवाब देंहटाएंनयी पोस्ट@
आप की जब थी जरुरत आपने धोखा दिया(नई रिकार्डिंग)
सुन्दर सृजन है. अच्छा लगा पढ़कर.
जवाब देंहटाएंजीवन में कोई लक्ष्य मिल जाए इससे आआगे क्या ...
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर अभिव्यक्ति...!
जवाब देंहटाएंRECENT POST - प्यारी सजनी
सुन्दर प्रस्तुति...
जवाब देंहटाएंवाह !!
जवाब देंहटाएंमंगलकामनाएं आपको !!