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शुक्रवार, 26 अक्तूबर 2012

५३.चिड़िया

चिड़िया, बहुत अच्छा लगता है
सुबह-सुबह मेरी खिड़की पर
तुम्हारा ज़ोर-ज़ोर से,
अधिकार से चहचहाना.

मैं आँखें बंद करके 
महसूस करता  हूँ तुम्हारी आवाज़, 
फिर निहारता हूँ तुम्हें 
जब तक तुम फुर्र नहीं हो जाती.

चिड़िया, तुम खूब खिड़की पर आया करो,
खूब चहचहाया करो,
यहाँ तक कि रातों को भी,
नींद उड़ा दो मेरी 
ताकि चैन आ जाय मुझे.

ईंट-पत्थर के इस जंगल में 
कहाँ दिखती हो तुम,
दिखती भी हो तो गुमसुम,
चिड़िया,आजकल तुम्हारी आवाज़ 
सुनाई कहाँ पड़ती है ?

12 टिप्‍पणियां:

  1. शहरों की यह बेरुखी, दिन प्रतिदिन गंभीर ।

    जीव-जंतु की क्या कहें, दे मानव को पीर ।

    दे मानव को पीर, किन्तु शहरों से गायब ।

    बस्ती रही मशीन, बना यह शहर अजायब ।

    कंक्रीट को पीट, सीट अधिसंख्य बनाई ।

    एक अदद भी नहीं, कहीं से चिड़िया आई ।।

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  2. सच में आज उसका आस्तिव ही खो गया है जो थोड़ी २ देर में हमारे आगं में फुदकती रहती थी रचना अच्छी लगी |

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  3. अब तो कंक्रीट के जंगल में अपनी आवाज़ भी ढूंढनी पडती है...बहुत सुन्दर प्रस्तुति..

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  4. प्रकृति से प्रेम कराना सिखाती है यह कविता।

    जब कभी
    कंकरीट के जंगल से
    उकता कर भागता हूँ
    खुद को
    हरे भरे वृक्षों के बीच पाता हूँ
    दृढ़ होता है विश्वास
    मरी नहीं है चिड़िया
    गिद्ध की तरह
    हमी हो चुके हैं
    पथरीले।

    आयेगी
    आ सकती है
    चहक सकती है फिर से
    मेरे आँगन में
    चिड़िया
    बस हमे
    होना है थोड़ा
    हरा-भरा
    रखना है
    एक कटोरा पानी
    और थोड़े से दाने
    अपनी भूख से
    बचाकर।

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  5. उसके हिस्से का दाना पानी और पेड़ हमीं खा गए...क्या करे बेचारी....

    सार्थक रचना.

    सादर
    अनु

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  6. सार्थक रचना ...
    अब चिड़ियों का दिखना कम हो गया है...

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  7. ईंट-पत्थर के इस जंगल में
    कहाँ दिखती हो तुम,
    दिखती भी हो तो गुमसुम,
    चिड़िया,आजकल तुम्हारी आवाज़
    सुनाई कहाँ पड़ती है ?

    ..सच ईंट पत्थरों के बीच चिड़िया की आवाज दबती जा रही है ...
    बहत बढ़िया प्रस्तुति ...

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