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शुक्रवार, 19 अक्तूबर 2012

५२.मिट्टी

अच्छी-भली पड़ी थी मैं
अपने शांत कोने में,
मुलायम घास के नीचे,
पहाड़ी की गोद में.

तुमने फावड़ा चलाया,
विस्थापित किया मुझे,
तोडा-फोड़ा, कीचड़ बनाया,
फिर छोड़ दिया यूँ ही.

अब ज़रा रहम खाओ,
गागर बना दो मुझे,
जिसमें पानी भरकर 
गांव की औरत 
रख ले मुझे सर पर 
या कोई सुन्दर मूरत 
जिसे सजा दे कोई मंदिर में.

चलो, कोई मामूली-सा खिलौना बना दो,
जिससे बच्चे खेलें कुछ दिन,
फिर तोड़ दें ठोकर मारकर 
या फेंक दें कूड़ेदान  में.

कुछ तो आकार दो मुझे,
अर्थ दो मेरे जीवन को,
पर्वत और घास से अलग होकर
कुछ तो बन जाऊं मैं 
किसी के कुछ तो काम आऊं मैं.

8 टिप्‍पणियां:

  1. आकार देकर तुम पूर्ण होगे ... ना भी होवो तो मुझमें ही मिलोगे

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  2. कोई तो आकर हो जीवन का जिससे जीवन का अर्थ मिले..
    सुन्दर भावपूर्ण रचना...

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  3. परोकारी भाव!
    सुन्दर!

    --
    ए फीलिंग कॉल्ड.....

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  4. कुछ तो आकार दो मुझे,
    अर्थ दो मेरे जीवन को,

    बहुत ही सुन्दर रचना।
    मेरी नई पोस्ट पर आमंत्रित करता हूँ http://rohitasghorela.blogspot.in/2012/10/blog-post_17.html

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  5. बढ़िया तड़प , प्रभावशाली कलम की !
    शुभकामनायें आपको !

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  6. कुछ तो आकार दो मुझे,
    अर्थ दो मेरे जीवन को,
    पर्वत और घास से अलग होकर
    कुछ तो बन जाऊं मैं
    किसी के कुछ तो काम आऊं मैं.

    ...क्या बात है...बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..

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