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बुधवार, 14 अक्तूबर 2020

४९१. कविता




जब भी बैठता हूँ मैं कविता लिखने,

न जाने क्यों,

मेरे शब्द अनियंत्रित हो जाते हैं,

कोमल शब्दों की जगह 

काग़ज़ पर बिखरने लगते हैं 

आग उगलते शब्द,

काँटों से चुभने लगते हैं उन्हें,

जो मेरी कविताएँ पढ़ते हैं.


उन्हें लगता है 

कि मैं वैसी कविताएँ क्यों नहीं लिखता,

जो राजाओं की तारीफ़ में लिखी जाती थीं,

जिन्हें कवि दरबार में सुनाते थे,

वाहवाही और ईनाम पाते थे.


मैं चाहता तो हूँ,

पर लिख नहीं पाता ऐसी कविताएँ,

अवश हो जाता हूँ मैं,

मेरी लेखनी मुझे अनसुना कर 

एक अलग ही रास्ते पर चल पड़ती है,

उसे दुनियादारी की कोई समझ नहीं है.

 


7 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 15 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. बहुत बढिया ओंकार जी | कवि के अंतस की उहापोह का सटीक शब्दांकन !

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