मैंने देखा,
पिता को जाते,
अचानक,बिना-वजह.
उनके चेहरे पर थी
रुकने की ख़्वाहिश,
उनकी आँखों में बेबसी,
उनके होंठों पर थे
कुछ अस्पष्ट-से शब्द,
उनके हाथों में कोई
अजनबी-सा इशारा.
क्या था उनके दिल में,
न वे समझा पाए,
न मैं समझ पाया.
मैं बदहवास-सा दौड़ा,
रोकने की कोशिश की,
हाथ पकड़े उनके,
पर उनको नहीं पकड़ पाया.
पिता को जाते,
अचानक,बिना-वजह.
उनके चेहरे पर थी
रुकने की ख़्वाहिश,
उनकी आँखों में बेबसी,
उनके होंठों पर थे
कुछ अस्पष्ट-से शब्द,
उनके हाथों में कोई
अजनबी-सा इशारा.
क्या था उनके दिल में,
न वे समझा पाए,
न मैं समझ पाया.
मैं बदहवास-सा दौड़ा,
रोकने की कोशिश की,
हाथ पकड़े उनके,
पर उनको नहीं पकड़ पाया.
बस यही आदमी के हाथ में नहीं होता ।
जवाब देंहटाएंबेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंभावुक कर गई आपकी यह रचना। पिता का अवसान व विछोह का दुख मुझसे बेहतर और कौन समझ सकता है।
जवाब देंहटाएंरोकने की कोशिश की,
जवाब देंहटाएंहाथ पकड़े उनके,
पर उनको नहीं पकड़ पाया....., पीड़ा की अनुभूति के साथ मानव मन की कुछ न कर पाने की व्यथा प्रकट करती मर्मस्पर्शी रचना ।
अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना ! यहीं पर सारी सामर्थ्य, सारी क्षमता, सारी धन दौलत, सारी प्रतिष्ठा रुतबा सब शून्य हो जाता है और हम संसार के सबसे निरीह प्राणी से नज़र आते हैं !
जवाब देंहटाएंह्रदय को स्पर्श करती
जवाब देंहटाएंबहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति आपकी...
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जवाब देंहटाएंएक पल जो निकल जाता है हाथ से ... शायद कभी नहीं आता ...
जवाब देंहटाएंदिल से निकले शब्द ...
अनंत की यात्रा, एक पल में सब कुछ छूट जाता हुआ, परंतु अवश्यंभावी . . .
जवाब देंहटाएंउस पल को व्यक्त करते शब्द ...
मर्मस्पर्शी रचना , वो पल जब महसूस होता हैं हम नियति के आगे बेबस है, सादर नमस्कार आप को
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