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शुक्रवार, 5 अप्रैल 2019

३५३. पिता का जाना

मैंने देखा,
पिता को जाते,
अचानक,बिना-वजह.

उनके चेहरे पर थी 
रुकने की ख़्वाहिश,
उनकी आँखों में बेबसी,
उनके होंठों पर थे 
कुछ अस्पष्ट-से शब्द,
उनके हाथों में कोई 
अजनबी-सा इशारा.

क्या था उनके दिल में,
न वे समझा पाए,
न मैं समझ पाया.

मैं बदहवास-सा दौड़ा,
रोकने की कोशिश की,
हाथ पकड़े उनके,
पर उनको नहीं पकड़ पाया.

10 टिप्‍पणियां:

  1. भावुक कर गई आपकी यह रचना। पिता का अवसान व विछोह का दुख मुझसे बेहतर और कौन समझ सकता है।

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  2. रोकने की कोशिश की,
    हाथ पकड़े उनके,
    पर उनको नहीं पकड़ पाया....., पीड़ा की अनुभूति के साथ मानव मन की कुछ न कर पाने की व्यथा प्रकट करती मर्मस्पर्शी रचना ।

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  3. अत्यंत मर्मस्पर्शी रचना ! यहीं पर सारी सामर्थ्य, सारी क्षमता, सारी धन दौलत, सारी प्रतिष्ठा रुतबा सब शून्य हो जाता है और हम संसार के सबसे निरीह प्राणी से नज़र आते हैं !

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  4. ह्रदय को स्पर्श करती
    बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति आपकी...

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  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

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  6. एक पल जो निकल जाता है हाथ से ... शायद कभी नहीं आता ...
    दिल से निकले शब्द ...

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  7. अनंत की यात्रा, एक पल में सब कुछ छूट जाता हुआ, परंतु अवश्यंभावी . . .
    उस पल को व्यक्त करते शब्द ...

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  8. मर्मस्पर्शी रचना , वो पल जब महसूस होता हैं हम नियति के आगे बेबस है, सादर नमस्कार आप को

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