३५०. दिसंबर में बारिश
बारिश,
यहाँ दिसंबर में न आना,
पहले से डेरा जमाए बैठी है ठण्ड,
यह चली जाय, तो आना.
अगर आओ भी,
तो मत बरसना फुटपाथ पर,
अस्पताल के गेट पर,
टपकते छप्परों पर.
अट्टालिकाओं पर बरस जाना,
महलों पर बरस जाना,
उन सारी छतों पर बरस जाना,
जिनके नीचे सोए लोगों तक
तुम तो क्या,
तुम्हारी आवाज़ भी नहीं पहुँचती।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-03-2019) को "पन्द्रह लाख कब आ रहे हैं" (चर्चा अंक-3277) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
वाह क्या बात है! दिल छू लेने वाली पंक्तियों के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंवाह क्या बात है! हृदय छू लेने वाली पंक्तियों के लिए आपको बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर और सटीक रचना...
जवाब देंहटाएंहर शब्द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंकितना बर्बाद करती हैं दिसंबर की बारिशें ...
जवाब देंहटाएंउम्दा रचना है ...
भावपूर्ण रचना.
जवाब देंहटाएंबहुत ही लाजवाब....
जवाब देंहटाएंकम शब्दों में गहरी बात....
उम्दा लिखावट ऐसी लाइने बहुत कम पढने के लिए मिलती है धन्यवाद् Aadharseloan (आप सभी के लिए बेहतरीन आर्टिकल संग्रह जिसकी मदद से ले सकते है आप घर बैठे लोन) Aadharseloan
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