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शुक्रवार, 15 मार्च 2019

३५०. दिसंबर में बारिश


बारिश,
यहाँ दिसंबर में न आना,
पहले से डेरा जमाए बैठी है ठण्ड,
यह चली जाय, तो आना.

अगर आओ भी,
तो मत बरसना फुटपाथ पर,
अस्पताल के गेट पर,
टपकते छप्परों पर.

अट्टालिकाओं पर बरस जाना,
महलों पर बरस जाना,
उन सारी छतों पर बरस जाना,
जिनके नीचे सोए लोगों तक
तुम तो क्या,
तुम्हारी आवाज़ भी नहीं पहुँचती।

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (17-03-2019) को "पन्द्रह लाख कब आ रहे हैं" (चर्चा अंक-3277) पर भी होगी।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह क्या बात है! दिल छू लेने वाली पंक्तियों के लिए आपको बधाई।

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  3. वाह क्या बात है! हृदय छू लेने वाली पंक्तियों के लिए आपको बधाई।

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  4. बहुत सुन्दर और सटीक रचना...

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  5. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  6. कितना बर्बाद करती हैं दिसंबर की बारिशें ...
    उम्दा रचना है ...

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  7. बहुत ही लाजवाब....
    कम शब्दों में गहरी बात....

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