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शुक्रवार, 17 अगस्त 2018

३२१. निर्भरता


मेरे जूतों की नई जोड़ी में 
न जाने कैसे 
एक जूता जल्दी फट गया,
न सिलने लायक रहा,
न चिपकने लायक.

दूसरा जूता बिल्कुल ठीक था,
पर मुझे फेंक देने पड़े 
दोनों जूते,
क्या करता मैं 
उस अकेले जूते का,
जिसमें कोई कमी नहीं थी?

मेरा मन भारी था,
पर कोई चारा नहीं था,
दोनों जूते एक दूसरे पर 
इतने निर्भर थे 
कि एक के बिना दूसरे का 
कोई अस्तित्व ही नहीं था.

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-08-2018) को "सिमट गया संसार" (चर्चा अंक-3068) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. निर्भरता का सुंदर उदहारण प्रस्तुत करती कविता।

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  3. वाह क्या बात हैं।बहुत ही गहरे भाव हैं जिसमे जिसके अनन्त मायने हैं।शानदार रचना।

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  4. बहुत गहरे भाव ...
    साथ कभी कभी जान लेवा हो जाता है ...

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