धीरे-धीरे रफ़्तार पकड़ रही है गाड़ी,
छूट गया पीछे स्टेशन,
ओझल हो गए परिजन,
जाने-पहचाने मकान,
गली-कूचे, सड़कें,
पेड़,चबूतरे- सब कुछ.
पीछे रह गया मेरा शहर,
धीरे-धीरे छूट जाएगा
मेरा ज़िला, मेरा सूबा,
पीछे रह जाएगी यह हवा,
इसकी ताज़गी,
यह मिट्टी, इसकी ख़ुशबू.
रफ़्तार के नशे में हूँ मैं,
आँखें मुंदी हैं मेरी,
एक नई मंज़िल के सपने का
ख़ुमार है मुझ पर.
नई मंज़िल न जाने कैसी होगी,
न जाने होगी भी या नहीं,
पर जो था, जो है,
सब छूटता जा रहा है.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (29-10-2017) को
जवाब देंहटाएं"सुनामी मतलब सुंदर नाम वाली" (चर्चा अंक 2772)
पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
रफ्तार का नशा ही कुछ ऐसा होता हैं कि उसके कारण बहुत कुछ पीछे छुट जाता हैं। सुंदर प्रस्तुति।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर कविता ओंकार जी। जीवन के गतिमान होने का यही तो प्रमाण है,पुराना छूटकर ही नया हासिल होता है।
जवाब देंहटाएंआगे बढ़ने की गति में कुछ पीछे छोड़ना पड़ेगा ही .
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द" में सोमवार ३० अक्टूबर २०१७ को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com आप सादर आमंत्रित हैं ,धन्यवाद! "एकलव्य"
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर।
जवाब देंहटाएंसुन्दर।
जवाब देंहटाएंरफ्तार का नशा.....
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ पीछे छूट जाता है ।
यादें साथ रहती है हर पल।
बहुत सुन्दर....
इस छूटने का एहसास जब होता है तब तक समय निकल जाता है ... अच्छी रचना ...
जवाब देंहटाएंआज की आगे बढ़ने की दौड़ में कितना कुछ पीछे छूट जाता है, लेकिन जब इसका अहसास होता है बहुत देर हो चुकी होती है और पाते हैं हम स्वयं को अकेला...बहुत सुन्दर रचना
जवाब देंहटाएंकितनी गहरी बात, कितने कम शब्दों में
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