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शनिवार, 14 अक्तूबर 2017

२८१. दहशत में जीभ

आजकल गुमसुम रहती है मेरी जीभ ,
बोलती नहीं कुछ भी,
बस चुपचाप पड़ी रहती है मुंह में.

खो गया है उसका अल्हड़पन,
फूल नहीं झरते अब उससे,
मेरी जीभ नहीं करती अब 
रोतों को हंसा देने वाली बातें,
अब नहीं करती वह 
पहले सी ज़िद,
नहीं कहती कहीं भी जाने को,
नहीं कहती कुछ भी खाने को,
सारे स्वाद भूल गई है मेरी जीभ.

अब बच्ची नहीं रही मेरी जीभ ,
अचानक से बड़ी हो गई है,
आजकल मेरी जीभ 
मेरे ही दांतों की दहशत में है.

9 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 15 अक्टूबर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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  2. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (15-10-2017) को
    "मिट्टी के ही दिये जलाना" (चर्चा अंक 2758)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, दुर्गा भाभी की १८ वीं पुण्यतिथि “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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  4. आपकी रचना काबिलेतारीफ़ है ,सुन्दर कृति।

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  5. बहुत खूब, अब बच्ची नही रही मेरी जीभ
    अचानक से बढ़ी हो गयी है ,
    अचानक से बड़ी हो गयी है
    आजकल मेरी जीभ
    दाँतो की दहशत मे रहती है मेरी जीभ

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  6. सही है । बत्तीस दाँतों के बीच खुद को बचाए जो रखना है । सटीक व्यंग्य ।

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