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रविवार, 18 दिसंबर 2016

२४०. दिलासा


जीवन-भर पुकारा मैंने,
पर तुमने सुना ही नहीं,
शायद मेरी आवाज़ में दम नहीं था,
या तुम्हारे सुनने में ही कुछ कमी थी.

अब जब जीवन की संध्या-बेला में हूँ,
तो मन रखने के लिए ही सही 
बस इतना-सा कह दो 
कि तुमने मुझे सुनकर 
अनसुना नहीं किया था. 

3 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (19-12-2016) को "तुम्हारी याद स्थगित है इन दिनों" (चर्चा अंक-2561) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. सुन्दर मर्मस्पर्शी रचना !

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